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आप सभी को नमस्कार। प्रकाशवाणी में आपका स्वागत है।  यहाँ आपको जिंदगी की परतों की कुछ तह मिलेगी।  थोड़ी बात थोड़ा हँसना-मुस्कुराना।  थोड़ा घूमना-फिरना।  कुछ नई कुछ पुरानी यादें और भी कई अनुभूतियाँ होगी।  तो चलते हैं सफर पर प्रकाशवाणी के साथ। ....



उन दिनों मेरी बी. ए. की परीक्षाएँ समाप्त हुई थी।  दोस्तों ने कहा चलो कहीं घूमने चलते हैं।  मैंने जबलपुर के बारे में बताया सब तैयार हो गए।  तय समय पर देवरिया रेलवे स्टेशन से चौरी चौरा मेल पकड़ के सुबह सुबह हम इलाहबाद (जो आज का प्रयागराज बन चूका है) पहुँच गए।  प्रयागराज से हमें जबलपुर की रेल पकड़नी थी पर गलती से हमने चुनार की रेल पकड़ ली।  रेल चलती जा रही थी।  यात्रियों की बातचीत  से पता चला की ये रेल चुनार जाएगी।  रेल काफी देर चलने  के बाद नैनी स्टेशन से काफी आगे रुकी।  रेल जबलपुर नहीं जा रही थी तो हम बीच वीरान में पटरियों पर उतर लिए कुल पाँच  दोस्त थे।  पीछे दूर कही नैनी स्टेशन दिख रहा था लगभग डेढ़-दो किलोमीटर आगे।  सबने अपने-अपने बैग उठाए और चल दिए स्टेशन की तरफ।  कड़ी धूप पसीने से लतफत।  पत्थरों और पटरियों पर दौड़े जा रहे हैं।  दूर नैनी स्टेशन दिखाई दे रहा है।  बीच में सूर्य की चमक से मृगतृष्णा बनी जा रही है।  पत्थरों पर पैर फिसल रहे हैं संभल रहे हैं दोस्तों में गजब का सामंजस्य- एक दूसरे का बैग अपने कंधों पर ले के परम मित्र सिद्ध होने की कोशिस हो रही है। सभी हसते-गाते-रोते नैनी स्टेशन पहुंचते हैं। छोटा सा स्टेशन टिकट घर के पास दो ब्रेंच पड़े थे सभी वही बैठ लिए।  दोस्तों की बातें  एक-दूसरे पर गलती मढ़ना। अभी हम आराम कर ही रहे थे कि एक सवारी गाड़ी आई और हम उससे प्रयागराज पहुच गए।  आगे की योजना के बारे में योजना बनने लगी की अब क्या किया जाये।  सबने कहा की अब तो घर वापस चलो पर मैं वापस जाना नहीं चाहता था।  क्या हुआ हमने गलत रेल पकड़ ली तो अब तो हम सही रेल पकड़ सकते हैं। 
चलिए सही रेल पकड़तें हैं और चलते हैं जीवन के सफर पे.. 

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